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भारत विभाजन 20वीं शदी की सबसे बड़ी त्रासदी थी। यह विभाजन आज भी राजनीति, समाज और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रभावित कर रहा है। इससे हमें सीख लेने की आवश्यकता है। हमें विविधता को हमेशा एकता में बांधे रखना होगा। ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति का भारत शिकार हुआ था। हम सामने वाले की चाल को नहीं समझ पाए थे। उसी समय विभाजन से बचने के लिए और प्रयास होना चाहिए था। अगर उस समय विभाजन नहीं होता, तो आज दुनिया में हमारा भारत कुछ और होता।
नालंदा कॉलेज में ‘भारत विभाजन की परिस्थितियां’ पर सेमिनार में मुख्य वक्ता मगध विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. पियुष कमल सिन्हा ने कहा कि भारत विभाजन एक ऐतिहासिक त्रासदी थी, जिसने लाखों लोगों के जीवन को पलट कर रख दिया। यह विभाजन राजनीतिक असहमति, सांप्रदायिकता और औपनिवेशिक नीतियों की देन था। इतिहास से सीख लेकर हमें यह समझना चाहिए कि सांप्रदायिकता और नफरत किसी समाज को कितनी गहराई से तोड़ सकती है। भारत को चाहिए कि वह अपनी विविधता को एकता में बदलते हुए ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचे और एक समावेशी समाज के निर्माण में भूमिका निभाए।
बिहार विश्वविद्यालय के डॉ. शिवेश कुमार ने कहा 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, लेकिन यह आजादी विभाजन की पीड़ा के साथ आई। ब्रिटिश भारत दो अलग-अलग देशों-भारत और पाकिस्तान-में बंट गया। यह बंटवारा केवल भौगोलिक नहीं था, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय दृष्टि से भी गहरे घाव भी छोड़ गया। जिसकी टीस आज भी हमें परेशान करती है। भारत विभाजन के पीछे कई ऐतिहासिक, राजनीतिक और धार्मिक कारण थे, जिनकी जटिलता को समझना बेहद आवश्यक है। इसे समझना आज के समय में और प्रासंगिक हो गया है।
आखिर हमें ऑपरेशन सिंदूर क्यों चलना पड़ा :
प्राचार्य प्रो. डॉ. रामकृष्ण परमहंस ने कहा आज भी हम उस विभाजन से गाहे बेगाहे जख्मी हो रहे हैं। लेकिन, आज का भारत समृद्ध और आत्मनिर्भर है। बावजूद हमें यह भी सोचना चाहिए कि आखिर हमें ऑपरेशन सिंदूर क्यों चलाना पड़ा। यह भी सोचना चाहिए। आगे ऐसी नौबत न आए, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। कोई भी युद्ध या इस तरह का ऑपरेशन किसी भी देश के लिए लाभकारी नहीं होता है। इस ऊर्जा और संसाधन को वे देश विकास में लगा सकते हैं। यह सबों के लिए लाभकारी कदम साबित होगा।
इतिहास के विभागाध्यक्ष डॉ. रत्नेश अमन ने कहा भारत विभाजन एक ऐतिहासिक त्रासदी थी, जिसने लाखों लोगों के जीवन को पलट कर रख दिया। ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति और फूट डालो और राज करो के तहत ही ब्रिटिश शासन ने भारत में 200 वर्षों से अधिक समय तक राज किय। इस दौरान सुनियोजित ढंग से हिंदू-मुस्लिम एकता को कमजोर करने की भरसक कोशिश की। पहले मुस्लिम लीग और फिर अन्य सांप्रदायिक दलों को बढ़ावा देकर ब्रिटिशों ने भारत के विभिन्न समुदायों में वैमनस्य फैलाया। 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधार और 1932 के कम्युनल अवॉर्ड जैसे उपायों ने अलग-अलग धार्मिक आधार पर प्रतिनिधित्व की नींव रखी। यहीं से विभाजन की नींव पड़ी थी। लेकिन, यहां के आकाओं ने उसकी (ब्रिटिश शासन) चाल को नहीं समझा। उसके झांसे में आ गए।
मुस्लिम लीग की भूमिका और जिन्ना का नेतृत्व :
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में हुई थी, लेकिन 1930 के दशक के बाद यह पार्टी एकमात्र मुस्लिम प्रतिनिधि संगठन के रूप में उभरकर सामने आई। मोहम्मद अली जिन्ना, जो शुरू में हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे, धीरे-धीरे मुस्लिमों के लिए अलग देश की मांग करने लगे। 1940 में मुस्लिम लीग ने लाहौर प्रस्ताव पारित किया, जिसमें स्पष्ट रूप से मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग की गई। जिन्ना के अनुसार, हिंदू और मुस्लिम ‘दो राष्ट्र’ हैं जो एक साथ नहीं रह सकते।
1946 का दंगे और सीधी कार्रवाई दिवस :
1946 में भारत में सांप्रदायिक तनाव चरम पर पहुंच गया। 16 अगस्त 1946 को सीधी कार्रवाई दिवस के आह्वान पर कोलकाता, बिहार, नोआखली और अन्य क्षेत्रों में भयंकर दंगे हुए। इन दंगों में हजारों लोग मारे गए और सांप्रदायिक विभाजन की रेखा और गहरी हो गई। यह स्थिति ब्रिटिश सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गई और जल्द ही विभाजन की संभावना पर विचार शुरू हुआ।
माउंटबेटन योजना और भारत विभाजन :
डॉ. रत्नेश अमन ने कहा ब्रिटेन ने भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजा ताकि सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण हो सके। माउंटबेटन ने 3 जून 1947 को विभाजन योजना की घोषणा की। इसके अंतर्गत भारत को दो देशों में बांटने का निर्णय लिया गया-भारत (हिंदू बहुल) और पाकिस्तान (मुस्लिम बहुल)। बंगाल और पंजाब को विभाजित किया गया और सीमाएं तय करने के लिए रेडक्लिफ आयोग का गठन हुआ।
मानव त्रासदी और विस्थापन :
विभाजन का सबसे वीभत्स पहलू था मानव त्रासदी। जैसे ही विभाजन की घोषणा हुई, करोड़ों लोगों को अपनी भूमि, घर, गांव छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से भारत की ओर लोगों के जत्थे निकले। इस दौरान लगभग 10 लाख से अधिक लोग मारे गए और लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। प्रो. रामकृष्ण कहते हैं इस तरह का विभाजन काफी दुखदायी होता है। जो दशकों तक हमें प्रभावित करता है। सेमिनार में मालती देवी, महेश प्रसाद, राजेश कुमार, प्रिंस पटेल व अन्य ने अपने विचार व्यक्त किए।

